Tuesday, 29 November 2011

Raging


 रैगिंग की घटनाओं की पुनरावृत्ति की बड़ी वजह

 सख्त कानून के अभाव को रैगिंग की घटनाओं की पुनरावृत्ति की बड़ी वजह मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर रैगिंग पर सचेत होना जरूरी रैगिंग के चलते कितनी जिंदगियां तबाह हुईं और कितने होनहार छात्रों का भविष्य चौपट हो गया, यह किसी से छिपा नहीं है। बार-बार एक ही बात याद दिलाने का कोई अर्थ भी नहीं है और इंजीनियरिंग या मेडिकल कालेजों तक पहुंचने वाले छात्र ऐसे नासमझ होते भी नहीं हैं कि उन्हें अपने भले-बुरे की ठीक से समझ न हो। उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे जो कुछ करते हैं, सोच-समझ कर ही करते हैं। किसी तरह के भावनात्मक आवेग या सिर्फ मौज में कुछ भी कर गुजरने की अपेक्षा उनसे नहीं की जा सकती है। रैगिंग के नतीजों की गंभीरता को देखते हुए इस पर कानूनी तौर पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। ऐसे किसी कृत्य में शामिल होने वाले छात्रों के खिलाफ कठोर कार्रवाई का प्रावधान भी किया जा चुका है। देश का सर्वोच्च न्यायालय इसे जघन्य अपराध करार दे चुका है। इसके बावजूद यह प्रवृत्ति अभी तक रुकी नहीं है। परपीड़न में सुख देखने की मानसिकता से हमारी नई पीढ़ी भी उबर नहीं पा रही है। इसका उदाहरण हाल ही में हरियाणा के एक इंजीनियरिंग कालेज में देखने को मिला है। रैगिंग के चलते हर साल कुछ न कुछ छात्रों की जान चली जाती है। कई छात्रों को अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है और कई अपंग हो जाते हैं। दो साल पहले हिमाचल प्रदेश के एक मेडिकल कालेज में हुई दिल्ली के एक छात्र अमन काचरू के साथ जो कुछ हुआ, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता है। कालेज के ही वरिष्ठ छात्रों द्वारा उसे इतनी बुरी तरह पीटा गया था कि इस सदमे को वह बर्दाश्त नहीं कर पाया। आखिरकार ब्रेन हेमरेज से उसकी मृत्यु हो गई। रैगिंग के नाम पर जिस तरह की शर्मनाक घटनाएं इन कालेजों में होती हैं, वे किसी को भी सदमे का शिकार बना देने के लिए काफी होती हैं। कहीं कपड़े उतरवाना तो कहीं मुर्गा बनाना, कहीं बेवजह दौड़ लगवाना और कहीं उलटी-सीधी हरकतें करना.. यह सब रैगिंग में शामिल हो चुका है। हालात यह हैं कि आम तौर पर इनके शिकार छात्र कालेज प्रशासन और अपने परिजनों को ऐसी हरकतों के बारे में बताते हुए भी शर्माते हैं। दूसरी तरफ, अराजक तत्वों का मनोबल इससे बढ़ता ही चला जाता है। वे सीधे-सादे नए छात्रों की शर्मिंदगी का गलत फायदा उठाते हैं और लगातार अपनी बेजा हरकतें बढ़ाते ही चले जाते हैं। पता तब चलता है जब स्थितियां विस्फोटक स्तर तक पहुंच जाती हैं। पिछले दिनों हरियाणा में भिवानी के एक कालेज में दूसरे राज्य से आए छात्रों को कालेज के ही कुछ स्थानीय छात्रों ने रॉड और हॉकी स्टिक से पीटा। बचाव के लिए आए हॉस्टल के वार्डन को भी हमलावरों ने नहीं छोड़ा और उन्हें सिर पर प्रहार कर जख्मी कर दिया। अब कालेज प्रशासन इसे रैगिंग के बजाय गुटीय संघर्ष का नाम दे रहा है। अगर इसे गुटीय संघर्ष मान भी लिया जाए तो सवाल यह है कि क्या किसी कालेज का प्रशासन अपने छात्रों को गुटीय संघर्ष की अनुमति दे सकता है? इससे यह जाहिर होता है कि कालेज प्रशासन घटना की तह तक गए और सच्चाई जाने बगैर ही इसे दूसरा मोड़ देने में जुट गया है। हालांकि प्रशासन यह स्वीकार करता है कि छात्रों के बीच झड़प पहले भी हुई थी। उस समय छात्रों को समझा-बुझा कर पूरी सतर्कता के साथ सामंजस्य बना लिया गया था। बाद में किसी बात पर उनका गुस्सा फिर से फूट पड़ा और वे आपस में भिड़ गए। इसमें कुछ छात्र घायल हो गए। यह बात अगर मान भी ली जाए कि यह सिर्फ गुटीय संघर्ष है, तो भी यह प्रश्न उठता है कि गुटीय संघर्ष को भी कोई कालेज कैसे बर्दाश्त कर सकता है? बुनियादी तौर पर यह प्रवृत्ति छात्रों में आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ने का संकेत ही देती है। वैसे भी अगर देखा जाए तो रैगिंग भी एक तरह का गुटीय संघर्ष ही होता है। सीनियर छात्रों का संघर्ष जूनियर छात्रों से और यह संघर्ष होता है केवल धौंस जमाने के लिए। कभी इसे केवल जूनियर-सीनियर के नाम पर अंजाम दिया जाता है तो कभी भाषा, क्षेत्र या जाति-संप्रदाय के नाम पर भी। आम तौर पर ऐसी घटनाओं के मूल में कुछ अराजक तत्व ही होते हैं। इसकी मुख्य वजह या तो हेकड़ी जमाने की चाह होती है या फिर पहले झेले जा चुके दु‌र्व्यवहार के लिए बदला लेना। असल में शुरुआती दौर में जब छात्र कालेजों में एडमिशन लेते हैं, तब उन्हें अपने सीनियर छात्रों से जो दु‌र्व्यवहार झेलना पड़ता है, उसका बदला वे अपने जूनियर छात्रों से लेना चाहते हैं। अब यह अलग बात है कि वे यह बदला उन लोगों से लेते हैं, जो इसके लिए बिलकुल जिम्मेदार नहीं होते हैं। फिर भी उन्हें इससे एक तरह का संतोष मिलता है। कुंठा की यह कार्रवाई इसी तरह अनंत चलती रहती है। यह प्रवृत्ति कितनी खतरनाक है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर साल इसके चलते कुछ होनहार छात्रों की जान चली जाती है। जाहिर है, ऐसी किसी भी घटना के बाद धर-पकड़ और पुलिस-न्यायालय का जो चक्कर शुरू होता है उसमें कुछ और छात्रों का भविष्य बर्बाद हो जाता है। पढ़ाई-लिखाई छोड़कर उन्हें थानों और अदालतों के चक्कर लगाने पड़ते हैं। इस तरह उनका समय बर्बाद होता है। माता-पिता तो यह मानकर कालेज भेजते हैं कि बच्चे पढ़ाई करेंगे, लेकिन कई बार अच्छे लड़के-लड़कियां भी कुछ अराजक तत्वों की सोहबत में बिगड़ जाते हैं। बहुत बार ऐसा केवल साथियों के दबाव में होता है, लेकिन कई बार वे ऐसा मजा लेने के इरादे से भी कर बैठते हैं। इन सभी प्रवृत्तियों पर रोक लगाने के अलावा कोई और चारा 7नहीं है। सच तो यह है कि इस मामले में प्रशासन को कड़ा रवैया अपनाना होगा। देश का ऐसा एक भी शहर नहीं है, जहां इस तरह की घटनाएं न हो चुकी हों। आम तौर पर सबसे पहले राज्य और कालेज प्रशासन ऐसी घटनाओं को दबाने के ही प्रयास करते हैं। लेकिन उन्हें इससे बाज आना चाहिए। विश्र्वविद्यालय अनुदान आयोग इस संबंध में स्पष्ट प्रावधान कर चुका है। सुप्रीम कोर्ट भी स्पष्ट निर्देश दे चुका है। कई राज्यों की सरकारें इसके लिए कानून भी बना चुकी हैं। जिन राज्यों में इसके खिलाफ कानून नहीं बना है, वहां भी प्रदेश सरकारों को चाहिए कि जल्दी से जल्दी कड़े प्रावधान करने का फैसला करें। रैगिंग में शामिल छात्रों को सीधे तीन-चार वषरें के लिए निलंबित करने और उन्हें दुबारा उस कोर्स में प्रवेश न लेने देने जैसे कड़े प्रावधान किए जाने चाहिए। उन लोगों के लिए यह सजा और कड़ी की जानी चाहिए जो दूसरे छात्रों को रैगिंग में शामिल होने के लिए प्रेरित या मजबूर करते हैं। सरकार और पुलिस प्रशासन को इस मामले में ज्यादा सचेत होने की जरूरत है।

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