तूफान से पहले का ‘सन्नाटा’, दिल्ली में बंधा बांध!
प्रेशर बढ़ रहा है। जितना दिन बांध को बांध कर रखोगे प्रेशर बढ़ेगा ही। जिस दिन दिल्ली से गेट खुलेंगे (जल्द खोलने भी पड़ेंगे) ये प्रेशर एक सैलाब की तरह वापस लौटेगा और कई सियासी जमीनें खराब होने के पूरे आसार हैं। कुछ नेता मुख्यधारा से अलग बहने की कोशिश करेंगे जिसका नुकसान भी मुख्यधारा को ही उठाना है।
सैलाब के आते ही ताबड़तोड़ सभाएं होंगी, आनन-फानन में दौरे होंगे, आरोपों-प्रत्यारोपों की पिच इतनी हाई होगी कि कुछ पल्ले नहीं पड़ेगा। कायदे से तीन हफ्ते ही मिलेंगे प्रचार के। इन्हीं में लोगों के बीच भी जाना है, डीलिमिटेशन वालों को अपना परिचय देना है और नामांकन भी दाखिल करने हैं।
रूठों को भी मनाना है, बागियों की वजह से समीकरणों को ताब भी लानी है, बड़े नेताओं की सभाओं के लिए जनता को भी जुटाना है, लोहड़ी व माघी भी हैं और गणतंत्र दिवस भी। एक और बड़ा फैक्टर हैं ठंड और कोहरा। हम कितनी भी बातें करें कि सियासी गर्मी ने सब कुछ गर्म कर दिया है, लेकिन हकीकत ये हैं कि ठंड, ठंड होती है और कोहरा कोहरा होता है।
इस बार नवंबर के मध्य से कुछ जलसे-जुलूस निकलने शुरू हुए थे। अकाली दल और भाजपा ने दो बड़ी सभाएं भी कर दीं लेकिन कांग्रेस वो भी नहीं कर सकी। अभी लग रहा था कि चुनावी बरसात जोर पकड़ेगी लेकिन चुनाव आयोग ने बरसात में ही बिजली गिरा दी, आशा से 15 दिन पहले मतदान की तारीख घोषित कर के। नतीजा ये निकला कि बरसात ही थम गई और दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ है।
अलग-अलग हलकों में निकलो तो हैरानी होती है कि लोगों की जुबान पर सबसे ज्यादा चर्चा उन पुलिस नाकों की हैं जो चुनाव आयोग के आदेश पर 1 लाख रुपए से ज्यादा वालों के लिए लगाए गए हैं। चौपालों, दुकानों में कौन बनेगा उम्मीदवार की भी ज्यादा चर्चाएं नहीं हैं। कारण, उन क्षेत्रों के नेता भी नहीं जानते कि क्या होगा।
ये चुनाव 2007 के चुनाव से काफी अलग लग रहे हैं। तब चुनाव घोषित होने तक मैदान काफी हद तक तैयार था। मुद्दे भी तैयार थे और ज्यादातर प्रत्याशियों के बारे में भी स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। एक बार जो चुनावी माहौल बना तो उसमें जरा भी सन्नाटा नहीं छाया बल्कि माहौल में गहमागहमी बढ़ती ही गई। इस बार इससे उल्टा है। घोषणा के बाद तो जैसे सभी को सांप सूंघ गया है। मुद्दे तैयार नहीं हैं और प्रत्याशियों को लेकर भी बस अटकलबाजियां हैं।
कांग्रेस और भाजपा दिल्ली में डेरा डाले हुए हैं। कांग्रेस के तो खैर 117 टिकट तय होने हैं, सो उनकी कहानी लंबी कही जा सकती हैं। लेकिन भाजपा ने तो केवल 23 सीटें ही तय करनी हैं। लेकिन यहां कई सीटों पर सांप छछूंदर की स्थिति बनी हुई है। न निगलते बन रहा है न उगलते। वहीं पार्टी पर सबसे बड़ा मनोवैज्ञानिक दबाव ये भी है कि यदि पार्टी प्रत्याशियों की वजह से कहीं रिजल्ट में गड़बड़ी हो गई तो गठबंधन में उन्हें ही बलि का बकरा बनाया जाएगा। फिलहाल पार्टी बहुत से पचड़ों से उलझ रही है।
रही बात कांग्रेस की तो ऐसा नहीं है कि पार्टी अपने पत्ते खोलना नहीं चाहती। असल में खोल ही नहीं पा रही है। बार बार उसे फेंटना पड़ रहा है। ज्यादातर सीटों पर दावेदारों की लंबी फेहरिस्त और गुटबाजी के कारण हो रहा है। बताते हैं अब कांग्रेस ने कुछ स्ट्रेटजी बदली है या बदलनी पड़ी है । वो ये हैं कि सीटें जितनी ज्यादा घोषित हों, बगावत की आशंका कम हो जाएगी। बगावत करने वालों को समय ही नहीं मिल पाएगा।
अकाली दल की टिकट बंटवारे को लेकर स्ट्रेटजी बाकियों से अलग रही है। समय रहते दो सूचियां निकाल दी हैं। लिस्ट जारी होने के बाद समय रहते अकालियों को पता चल गया है कि कहां क्या करना है। कौन रूठा ही रहेगा और किसके मानने की गुंजाइश है। अब उसे केवल 31 सीटों पर ही निपटना है। स्थिति उसके नियंत्रण में हैं।
दिख रहा है आयोग का खौफ
इस बार चुनाव आयोग का खौफ हर तरफ नजर आ रहा है। पंजाब चुनाव में काले धन के इस्तेमाल के लिए बदनाम रहा है। लेकिन इस बार ऐसे नेता भी फिलहाल परेशानी में हैं जो धन बल से चुनाव जीतते रहे हैं। चुनाव आयोग का डर नेताओं को ही नहीं सता रहा बल्कि शराब की डिस्टिलरियों से लेकर दारू के ठेकों तक की हालत खराब है। सभी जद में हैं।
यहां तक कि रात को दो-दो बजे तक खुले रहने वाले शराब के ठेकों पर पांच साल में पहली बार पुलिस की नजर गई। ऐसे कई ठेके वाले बताते हैं कि दो-तीन रोज पहले देर रात तक ठेका खुला रखने पर पुलिस वालों ने उन्हें किस कदर पीटा। जाहिर है पुलिस पर भी ऊपर से डंडा चल रहा है। ये तेवर समूची इलेक्शन प्रक्रिया में जारी रहे तो थोड़ा ही सही बदलाव तो होगा। लोगों के लिए ऐसी बातें नई है और तभी चर्चा भी कर रहे हैं।
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